आज हमारे समाज में धर्म को धर्म ना मान कर, एक दूकान की तरह बना दिया है | लोग ये भूल ही गए हैं कि धर्म का उद्देश्य क्या है | हर कोई धर्म के तवे पे अपनी रोटी सकने पे लगा है | कभी आसाराम का भेद खुलता है, तो कभी रामपाल का | हमारे भारत में भक्ति भावना लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई है | अगर भक्ति सिर्फ परमात्मा की हो तो ठीक है , लकिन जब ही भक्ति अपना मार्ग बदल कर कुछ ऐसे लोगों की हो जाती है जो खुद को भगवान् बताते हैं तब ये अंध-भक्ति हो जाती है | भक्ति बुरी नहीं है, पर अंधभक्ति बुरी है | हम ही हैं जो ऐसे इंसानों को भगवान् बनने देते हैं |
आमतौर पर हम भगवान उसे मानते हैं जो हमारी मनोकामना पूरी कर दे | हम धर्म या भगवान की शरण में सिर्फ इसलिए जाते हैं, जिससे हम कुछ मांग सकें | इस मांगने के बदले में हम कुछ न कुछ चढ़ावा भी चढाने से कतराते नहीं हैं | चढ़ावा भी हम ये सोच कर चढाते हैं की हम तो दान कर रहे हैं | पर असलियत में आप दान नहीं दे रहे हैं , आप भगवान् से सौदा कर रहे हैं | जितनी बड़ी मनोकामना , उतना बड़ा दान | और ये काम सिर्फ अनपढ़ ही नहीं , पढ़े लिखे भी करते हैं | हमारी इसी आदत ने कुछ चतुर लोगों को कमाई का एक नया तरीका दे दिया |
कभी आपने सोचने की कोशिश करी है की आखिर ये ढोंगी लोग इतनी प्रसिद्धि, पैसा और भक्त कैसे कमा लेते हैं | ये ऐसा इसलिए कर लेते हैं क्योंकि ये बहुत सोच समझ के उस वर्ग को अपना भक्त बनाते हैं जो कम पढ़ा लिखा हो और इनकी बातों में आ जाये | फिर धीरे धीरे इनकी प्रसिद्धि फैलती है और कुछ पढ़े लिखे लोग भी ये सोच कर इनके भक्त बन जाते हैं की शायद ये हमारे कारोबार को और बढ़ा दें | ये ढोंगी भगवान हमारी कम बुद्धि और लालच का फायदा उठाते हैं |
आप किसी मंदिर में भी जा कर पत्थर के भगवान् से कुछ मांगे तो 10 में से 2 मुराद तो पूरी हो ही जायेंगी | आप सोचेंगे की भगवान् ने सुन ली | पर असलियत ये होगी की आपने ही अपनी मुराद पूरी करने के लिए कुछ परिश्रम किया होगा | किसी भगवान् का मुराद पूरी करने का प्रतिशत 25% होगा तो किसी का 30% . जिन लोगों को पता है की मनोकामना पूरी करने वाले आप खुद ही हैं, और फिर भी मंदिर में मुराद पूरी करने के लिए चढ़ावा चढ़ा रहे हैं, वो तो इससे फायदा उठाने की जरूर सोचेंगे |
कुछ पाखंडी लोग धर्म और साधू समाज को कलंकित कर देते हैं | ये पाखंडी लोग सिर्फ स्टेज पर प्यार से बोलकर भगवान् की गाथाएँ सुनाते है, कोई कबीर की , कोई राधा कृष्ण की , कोई सीता राम की | मन्नतें पूरी करने की दर इनकी भी एक सादे से मंदिर से ज्यादा नहीं होती | पर 10 में से 2 लोगों की भी मुराद पूरी होती है तो वो सोचते हैं की बाबा जी ने पूरी कर दी , और वो बाबा के गुण गाने में जुट जाते हैं | अपने घर आने जाने वालों को भी बाबा की शक्ति के बारे में बताते हैं | फिर और 50 - 60 नए लोग बाबा के दरबार में पहुचते हैं | इस तरह इनका धंधा फलता फूलता रहता है |
ये धर्म की दूकान आज से नहीं , सदियों से चल रही है| फर्क सिर्फ इतना है की पहले दूकान होती थी, और अब बहुमंजिली शोरूम और माल्स खुल गए हैं | हम ही हैं जो इन पाखंडियों को बड़े-बड़े महलनुमा आश्रम बनाने के लिए धन देते हैं | भगवान् कभी आपसे धन की कामना नहीं करता, वो तो सिर्फ देने वाला है | वो तो आपको ज्ञान दे सकता है , बाकी सब तो आपको ही करना है |
क्या आपने कभी सुना है की कबीर ने अपने प्रवचन सुनने वालों की कोई फीस ली हो , या मनोकामना पूरी करने के लिए कुछ चढ़ावा लिया हो | असली पंहुचा हुआ व्यक्ति इन्सान को देखता है , पैसे को नहीं | कबीर, रामकृष्ण परमहंस और न जाने कितने पहुचे हुए साधू सन्यासी हुए हैं भारत में. इनमें से किसी ने भी पैसा कमाने की कोई तरकीब नहीं बताई , सिर्फ परमात्मा को पाने की बताई, क्यूंकि वही उनकी पूँजी थी | उनकी रुचि लोगों की मनोकामना पूरी करनी नहीं थी , बल्कि लोगों की मनोकामनाएं कम करनी थी | असली साधू को सांसारिक चीजों से ज्यादा आध्यात्मिक ज्ञान बाटने में आनंद आता है | उनको अगर कोई पैसा दे भी तो वे उसे या तो मना कर देंगे या किसी गरीब को देने के लिए कह देंगे , क्योंकि एक पहुचे हुए साधू के अन्दर इतनी करुणा होगी की वो अपने लिए कुछ ले ही न पायेगा |
हमारे भारत में बहुत से दानवीर हुए हैं , और हम भी धर्म स्थलों पर कुछ दान कर के समझते है की हम भी दानी हो गए | पर हमें एक बात समझनी चाहिए की दान के बदले में कुछ मांगा नहीं जाता | दानवीर कर्ण जब किसी को दान देते थे तो बदले में उससे कुछ लेते नहीं थे | अगर आप कुछ मांग कर दान दे रहे हैं , तो आप किसी धर्म स्थल पर नहीं , बल्कि एक दूकान में खड़े हैं |
दान वो है जो किसी जरूरतमंद को दिया जाए, दान वो है जो आप एक करुणा भरे ह्रदय से दें , दान वो है जिसके बदले में आप किसी चीज़ की कामना न करें|
जिस दिन हम ये बात समझ जायेंगे और इन पाखंडियों को दान देना बंद करेंगे तब ये धर्म की दूकान खोलने वाले अपने आप अपनी दूकान समेट लेंगे. क्योंकि दूकान वो ही चलती है, जहाँ ग्राहक होता है | और असली भगवान् को ग्राहक की नहीं , सच्चे भक्तों की जरूरत होती है |
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