शक्तिचक्रसन्धाने विश्वसंहारः [शिव सूत्र : 1 - 6]
यह शिव सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है |शाब्दिक अर्थ : शक्ति अर्थात शिव का वो अभिन्न हिस्सा जो इस जगत को चला रहा है |चक्र अर्थात एक गोला | संधान शब्द के कई अर्थ हैं जैसे धनुष पर बाण चढ़ाना , निशाना लगाना या मिलाना | विश्वसंहारः अर्थात इस संसार का संहार या अंत |
भावार्थ : समस्त जगत की शक्ति जो शिव का ही एक अभिन्न अंग है और इस जगत को स्वरुप प्रदान किये हुए है, जब वह समस्त शक्तिचक्र एक जगह इकठ्ठा होता है , तब जगत का संहार होता है | शिव का कार्य ही संहार है | जो भी चीज़ उत्त्पन्न हुई है , उसका संहार भी अवश्यम्भावी है | ये समस्त ब्रह्माण्ड भी इसी नियम से बंधा हुआ है | शिव इसका भी संहार करते है | समस्त ब्रह्माण्ड शिव की शक्ति का ही विस्तार है , जब ये समस्त शक्ति एक चक्र बना कर इकट्ठी होती है , तब विश्व का संहार होता है |
इस के अलावा इस सूत्र का एक और भाव भी है | हमारे शरीर में भी कुछ चक्र होते हैं जिन्हें योग के माध्यम से जाग्रत किया जा सकता है | ये चक्र न सिर्फ शक्ति का स्रोत होते हैं, बल्कि अनंत ज्ञान के भी स्रोत होते हैं | जब कोई योगी इन शक्तिचक्रों को साधता है , अर्थात इन्हें जाग्रत करता है , तो इस पहले से ज्ञात विश्व का उसके लिए अस्तित्व मिट जाता है , क्योंकि उस योगी के लिए ये विश्व केवल उस परम शक्ति का विस्तार मात्र रह जाता है | वह ज्ञान के उस बंधन से मुक्त हो जाता है , जिससे एक साधारण मनुष्य जीवन भर बंधा रहता है |
शिव परम योगी हैं , जो सभी तरह की योग विद्याओं के जनक हैं | ऐसी असाधारण बात केवल वही बता सकते हैं|
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